डाॅ. रमेश शर्मा
भारत सहित अनेक देशों की कंपनियां छिट पुट रुप में कार्यस्थल से दूर अपने कर्मचारियों को रखते हुए काम कराती रही हैं लेकिन गत साल से इसे बड़े पैमाने पर एक आवश्यकता के तौर पर अपनाना पड़ा है जिसका आधार इंटरनेट आधारित पद्घति है। बड़े और छोटे सभी शहरों की कंपनियां कोरोना काल में विशिष्ट रूप से ऐसा करने के लिए विवश हुई हैं। इस विवशता ने सदैव एक नई कार्य -संस्कृति को जन्म दिया है। आरंभ में तो यह अव्यावहारिक और अजीब लगा लेकिन धीरे धीरे नौकरी करने और कराने का एकमात्र माध्यम बन गया। कहते हैं कि आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। भारत सरकार 5-6 सालों से डिजिटल इंडिया के विचार को साकार करने के लिए पूरी ताकत लगा चुकी थी उसी प्रयास का फल है कि तुरंत मार्केट को बना बनाया आधारभूत ढांचा उपलब्ध हो गया जिसका उपयोग उद्योग जगत के लिए वरदान बन कर सामने आया है।
इस घटनाक्रम को और नजदीक से देखने से पता चलता है कि घर से काम करने की कोशिश तो है ही, आवास की कमी या बड़े परिवार में इसे चलाना उतना सरल नहीं है। परिवार के छोटे बड़े सभी पर असर पड़ना स्वाभाविक है। वहीं दूसरी ओर बड़े शहरों में नया घर खरीदना अथवा किराए पर केवल इसी उद्देश्य के लिए लेना भी आम कर्मचारी के बस की बात नहीं है। घर की व्यस्तताओं को निभाने के साथ सफल कर्मी बनना एक बड़ी चुनौती रही है। नौकरी भी बचानी है तथा उसका स्तर भी चाहिए। एकान्त में फोन या लैपटॉप यानी गैजेट ही साथी हैं। जिसके निश्चित दुष्प्रभाव भी हैं।
गाँव में तो सिग्नल, ब्रॉडबैंड/इंटरनेट भी नहीं है जिसके कारण लोगों को उपनगर अथवा ऐसी सुविधाओं से युक्त स्थानों का रुख करना पड़ा है । कई जगह होमस्टे अथवा उपयुक्त गैस्ट हाउस की शरण लेनी पड़ी है। कोरोना के खतरे का ध्यान तो सर्वत्र अनिवार्य है। कंपनियों को इससे कुल मिलाकर लाभ रहा है। कईयों के कारोबार को अच्छा खासा बल भी मिला है। सब जगह एक समान लाभ या हानि का दावा नहीं किया जा सकता है। कर्मचारियों के गले पर नौकरी से हटाने का खौफ दिखाकर वेतन भत्ते, उन्नति, अवसर आदि सीमित करने अथवा काम से हटाने का मानसिक दबाव भी बनाया जाता रहा है।
वैसे भी दफ्तर के खर्चे कम हुए और कोरोना की दहशत की आड़ में शोषण के आंकडे़ आने अभी शेष हैं। दफ्तर से दूर काम करने की इस नई प्रथा के मनोवैज्ञानिक पक्ष के अध्ययन समूची व्यवस्था के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत का काम करेंगे।
यह सर्वदा एक नवीन कार्य विधा है जो भिन्न भिन्न रूप में विभिन्न क्षेत्रों में स्थायी तौर पर रहने वाली है, अतएव सरकार को इस संबंध में सही और स्पष्ट दिशानिर्देश जारी करने चाहिएं जो सभी पक्षों के लिए मान्य व उपयोगी होने के साथ साथ दूरगामी प्रभावों का समाधान प्रस्तुत करते हों। कुल मिलाकर यह कहना मुश्किल नहीं है कि कोरोना के संकटकाल में यह कार्य विधि सफल रही है क्यों कि अन्य कोई विकल्प उपलब्ध नहीं था तथा इस से देश की आर्थिकी को बल मिला और कष्ट सह कर भी कर्मचारियों ने स्व और राष्ट्र हित में अपना योगदान दिया। सुदीर्घ काल तक चलने वाली परम्परा के प्रयोग को सुदृढ़ धरातल प्रदान किया।