-कौशल मूंदड़ा-
आखिर, गिरते-संभलते, राम-राम करते, साल 2020 विदा हो ही गया। पूरी दुनिया का 2020 बिगाड़ने वाले कोविड-19 नए स्ट्रेन में कोविड-20 बनकर 2021 को न बिगाड़ दे, इसके लिए भी चेता गया साल 2020। पहले कहा गया मास्क नहीं तब तक ढिलाई नहीं, और 2020 के आखिरी दिन नारा सामने आया दवाई भी-कड़ाई भी। यानी समझ लेना चाहिए कि अभी खतरा टला नहीं है। दो गज दूरी – मास्क जरूरी का मंत्र रोज सिर्फ जपना नहीं, साधना ही है।
न जाने कितने ही परिवारों को खून के आंसू रुला गया साल 2020, हमारी आंखों को 1947 के बंटवारे जैसे दृश्य दिखा गया साल 2020, पूरे के पूरे परिवारों को निगल गया साल 2020, कितने हाथों का रोजगार खा गया साल 2020, हमारी ईद हमारी दिवाली बिगाड़ गया साल 2020।
लेकिन, संकट के समय संभल कर रहने, परिवार के साथ रहने और एक-दूसरे को संभालने का सबक सिखा गया साल 2020।
जी हां, साल 2020 को जितना कोसो उतना कम है। लेकिन, इसी साल ने हमारे कई मिथक तोड़े, कई भ्रम तोड़े, कइयों की शेखी ठिकाने लगाई तो कइयों की आदतें सुधरवाईं।
अब यही देख लीजिये, हर आदमी यह कह रहा है कि यदि हम परिवार के साथ नहीं रह रहे होते तो पता नहीं क्या होता। दूर बड़े शहरों में किराये पर मकान लेकर अपने एकल परिवार को पाल रहे लोग जब जन्मभूमि की ममता की छांव में लौटने को मजबूर हुए तब उन्हें अहसास हुआ कि यदि परिवार साथ है, भाई-भाई एक हैं, घर की बहुएं समझदार हैं तो कोई संकट ही नहीं है। अच्छे अच्छों को समझ में आया कि संगठन में शक्ति है, बंद मुट्ठी लाख की है। कई लोगों ने तो यह कहावत भी दोहराई, ‘आधी रोटी खाणो, घर छोड़ ने कठैई नी जाणो।’
अब बच्चों को ही लो, गर्मी में कुल्फी-आइसक्रीम की जिद करने वाले बच्चे कब समझदार हो गए, आपको महसूस ही नहीं हुआ होगा। लाॅक डाउन में किसी बच्चे ने ऐसी डिमाण्ड नहीं की। जो घर में उपलब्ध था, उसी से एन्जाॅय किया। और लाॅक डाउन खुलने पर भी उन्होंने बाजार का कुछ ऐसा-वैसा खाने की जिद नहीं की, शायद सर्दी-जुकाम-बुखार से बचने का संदेश उनके मन में भी समझदारी पैदा कर गया। जब घर-परिवार में लौटे तो घर के कामकाज में हाथ भी बंटाया। महानगरों में रहने वाले बच्चों ने भी अपने दादा-दादी के पास लौटकर घर में ‘एडजस्ट’ करना सीखा। कई बच्चों को हनुमान चालीसा तब याद करवा दी गई जब कोरोनाकाल में स्कूल बंद थे, लेकिन टीवी पर रामायण चल रही थी। दादा-दादियों ने ऐसे कई काम किए जो पोते-पोतियों के दूर रहते हुए वे सिर्फ सोचकर मनमसोस कर रह जाते थे।
इसके अलावा, जिन रस्मों को सरकारें समाज से दूर करने के प्रयास बरसों से करती रहीं, कोरोना के समय ने यह काम स्वतः कर दिया। मृत्यु भोज कह लीजिये या अलग-अलग नाम दे दीजिये, लाॅकडाउन के दौरान जब यह रस्में नहीं हुईं तो समाज में किसी को कोई आपत्ति नहीं हुई। इतना ही नहीं, जब शादी समारोहों पर सरकारी डंडे से सीमित संख्या लागू की गई, तो न बुआ रूठी न फूफाजी बिगड़े। भले ही कुछ रस्में भी कम हुईं, लेकिन किसी की शादी रुक गई हो, ऐसी शिकायत नहीं आई। टूटना तो संभव ही नहीं क्योंकि हालात तो दोनों तरफ एक जैसे ही थे। टूटने का कारण क्या बताया जाता।
हां, इस कोरोना ने जिन अपनों को असमय हमसे छीन लिया, उनके अंतिम दर्शन भी जब मयस्सर नहीं हुए, तब जरूर पीड़ा हुई कि न तो दर्शन कर सके, न मुखाग्नि दे सके। जो परिवार अंतिम समय में अपनों के साथ भी नहीं रह पाए, जाने वाले भी जाते-जाते अपनों को नहीं देख पाए, उस पीड़ा को शब्दों में बयां करना संभव नहीं है।
जो चले गए, उनकी पीड़ा तो फिर भी उनके साथ चली गई, लेकिन यहां तो पीड़ा भी बेबस तब हो गई जब अपने किसी को कोरोना ने डस लिया। परिवार स्वास्थ्य सुरक्षा के दायरे में बंध गया तो मरीज अकेलेपन का शिकार हो गया। बचपन में पढ़ा था, मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज परिवारों से बनता है और बिना परिवार जब व्यक्ति अचानक अकेला हो जाए तो उसका मन कितना व्यथित हो जाता है, यह इस पीड़ा को झेलने वाले ही बयां कर सकते हैं। एक संन्यासी भी जंगल में सुरम्य वातावरण में अपने आश्रम में शिष्यों के साथ साधना करता है, वह समाज से अलग है, लेकिन अकेला ‘अलग-थलग’ नहीं।
खैर, हम बात कर रहे थे संकटकाल में सीखने-सिखाने की, तो जनाब हमारी पीढ़ी के ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने घरों में भोजन पैकेट बनाकर जरूरतमंदों को तलाश कर उन तक पहुंचाते देखा। उदयपुर में तो इस मामले में पुलिस को भी सैल्यूट किया जाए तो अतिशयोक्ति नहीं। डंडे बरसाने वाली पुलिस के हाथों प्रेम से भोजन पैकेट बंटते देखा।
पड़ोसी धर्म की भी इस कोरोना काल में खूब परीक्षा हुई। सिक्के का एक पहलू में लाॅक डाउन में पड़ोस में बाहर से आने वाले की चुगली करने और घर पर ही एकांतवास में रखे गए पाॅजिटिव मरीज पर सीसीटीवी से भी तेज निगाह रखने वाला पड़ोसी धर्म था, तो सिक्के का दूसरा पहलू उन पड़ोसियों का भी था जिन्होंने पाॅजिटिव आए परिवार के लिए सुबह का दूध, शाम की सब्जी और किराणे का सामान भी नियमित रूप से पहुंचाया। बच्चों के लिए बिस्किट-बे्रड-बटर भी पहुंचाए गए और बार-बार यह भी कहा गया कि बड़ों की चिंता ज्यादा नहीं है, लेकिन बच्चों को कुछ भी चाहिए तो तुरंत बताना। शहर की कुछ संस्थाओं के कार्यकर्ताओं ने तो घर से भोजन बनाकर गर्मागर्म पहले क्वारेंटीन हुए परिवारों तक पहुंचाया, फिर घर आकर भोजन किया।
फिर भी, अपनी गति से चल रही दुनिया के लिए साल 2020 के खाते में नुकसान का काॅलम बड़ा है क्योंकि आज की दुनिया में लाभ-हानि का आंकलन अर्थव्यवस्था से होता है, सामाजिकता से नहीं। पैकेज के वजन से होता है, आत्मिक सम्बल से नहीं। नोटों को भीगने से बचाने के लिए छाता लिए खड़े व्यक्ति से होता है, जेब में चंद सिक्कों के साथ बारिश में भीगने का आनंद लेने वाले व्यक्ति से नहीं। क्योंकि, मनमौजी खुशी का पैमाना अभी तक किसी भी जीडीपी के आंकलन में शामिल नहीं है।
चंद सिक्कों के साथ भी खुश रहने की सीख देने वाले साल 2020 को सलाम।
आने वाले नए साल 2021 की सभी को शुभकामनाएं।
स्वस्थ रहें – सुरक्षित रहें।