डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत सरकार ने देश की चिकित्सा-पद्धति में अब एक ऐतिहासिक पहल की है। इस ऐतिहासिक पहल का एलोपेथिक डाॅक्टर कड़ा विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि यदि देश के वैद्यों को शल्य-चिकित्सा करने का बाकायदा अधिकार दे दिया गया तो देश में इलाज की अराजकता फैल जाएगी। वैसे तो देश के लाखों वैद्य छोटी-मोटी चीर-फाड़ बरसों से करते रहे हैं लेकिन अब आयुर्वेद के स्नातकोत्तर छात्रों को बकायदा सिखाया जाएगा कि वे मुखमंडल और पेट में होनेवाले रोगों की शल्य-चिकित्सा कैसे करें। जैसे मेडिकल के डॉक्टरों को सर्जरी का प्रशिक्षण दिया जाता है, वैसे ही वैद्य बननेवाले छात्रों को दिया जाएगा।
मैं तो कहता हूं कि उनको कैंसर, दिमाग और दिल की शल्य-चिकित्सा भी सिखाई जानी चाहिए। भारत में शल्य-चिकित्सा का इतिहास लागभग पांच हजार साल पुराना है। सुश्रुत-संहिता में 132 शल्य-उपकरणों का उल्लेख है। इनमें से कई उपकरण आज भी- वाराणसी, बेंगलुरु, जामनगर और जयपुर के आयुर्वेद संस्थानों में काम में लाए जाते हैं। जो एलोपेथी के डाक्टर आयुर्वेदिक सर्जरी का विरोध कर रहे हैं, क्या उन्हें पता है कि अब से सौ साल पहले तक यूरोप के डाॅक्टर यह नहीं जानते थे कि सर्जरी करते वक्त मरीज को बेहोश कैसे किया जाए। जबकि भारत में इसकी कई विधियां सदियों से जारी रही हैं। भारत में आयुर्वेद की प्रगति इसलिए ठप्प हो गई कि लगभग डेढ़ हजार साल तक यहां विदेशी धूर्तों और मूर्खों का शासन रहा। आजादी के बाद भी हमारे नेताओं ने हर क्षेत्र में पश्चिम का अंधानुकरण किया। अब भी हमारे डाॅक्टर उसी गुलाम मानसिकता के शिकार हैं। उनकी यह चिंता तो सराहनीय है कि रोगियों का किसी प्रकार का नुकसान नहीं होना चाहिए लेकिन क्या वे यह नहीं जानते कि आयुर्वेद, हकीमी, होमियोपेथी, तिब्बती आदि चिकित्सा-पद्धतियां पश्चिमी दवा कंपनियों के लिए बहुत बड़ा खतरा हैं? उनकी करोड़ों-अरबों की आमदनी पर उन्हें पानी फिरने का डर सता रहा है।
हमारे डाॅक्टरों की सेवा, योग्यता और उनके योगदान से कोई इनकार नहीं कर सकता लेकिन आयुर्वेदिक चिकित्सा-पद्धति यदि उन्नत हो गई तो इलाज में जो जादू-टोना पिछले 80-90 साल से चला आ रहा है और मरीजों के साथ जो लूटपाट मचती है, वह खत्म हो जाएगी। मैंने तो हमारे स्वास्थ्य मंत्री डाॅ. हर्षवर्द्धन और आयुष मंत्री श्रीपद नाइक से कहा है कि वे डॉक्टरी का ऐसा संयुक्त पाठ्यक्रम बनवाएं, जिसमें आयुर्वेद और एलोपेथी, दोनों की खूबियों का सम्मिलन हो जाए। जैसे दर्शन और राजनीति के छात्रों को पश्चिमी और भारतीय, दोनों पक्ष पढ़ाए जाते हैं, वैसे ही हमारे डॉक्टरों को आयुर्वेद और वैद्यों को एलोपेथी साथ-साथ क्यों न पढ़ाई जाए? इन पद्धतियों के अंतर्विरोधों में वे खुद ही समन्वय बिठा लेंगे।
(लेखक सुप्रसिद्ध पत्रकार और स्तंभकार हैं।)
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