जानिये आखिर क्यों कहते हैं इसे नौचौकी पाल
‘राजसमुन्द्र’ महाराणा राजसिंह कालीन वास्तु कला का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। यह मात्र एक विशाल तालाब या झील के रूप में ही नहीं, प्रत्युत सारी दुनिया की स्थापत्य, अभियांत्रिकी, मूर्तिकला तथा पाषाण में तक्षण की भास्कर्य कला के संदर्भ में विलक्षण है।
प्रथमत: अंक ‘नौ’ की बांध निर्मितियां भारतीय दर्शन और संस्कृति प्रसंग में इस नौ चौकी बांध की विलक्षणता का द्योतक है। डॉ. राजशेखर व्यास ने कई लेखों में मेवाड़ के स्थापत्य के संदर्भ में राजसमुन्द्र बांध का उल्लेख करते हुए लिखा है कि नौ अंक भारतीय दार्शनिक मान्यताओं में ब्रह्म अंक स्वीकारा गया है और यह अक्षय संख्या है। किसी भी संख्या से नौ का गुणा करने पर आने वाली संख्या का योग नौ ही आता है। ऐसी स्थिति में भारतीयों ने नां अंक को अक्षय व ब्रह्म अंक मान उसे सभी प्रकार से शुभफल देने वाला स्वीकारा है और महाराणा राजसिंह ने इस ब्रह्म अंक नौ को बांध की निर्मितियों में प्रमुखता के साथ स्थान देकर भारतीयों की दार्शनिक मान्यताओं को मूर्तस्वरूप में संरक्षित रखने का कार्य किया है।
आज भी यह विशाल राजसमुन्द्र झील हमें महाराणा राजसिंह के स्वर्णमय युग की याद दिलाती है। राजसमुन्द्र झील के निर्माण के सम्बंध में अनेक रोचक व महत्वपूर्ण तथ्य रणछोर भट्ट कृत राज प्रशस्ति महाकाव्य में प्रस्तुत हैं।
राजनगर के निकट दो पहाडिय़ों के मध्य गोमती नाम की एक नदी बहती थी। इस नदी के पानी को रोक कर एक विशाल तालाब बनाने की योजना महाराणा अमरसिंह प्रथम ने बनाई थी और उसने बांध बनवाने का कार्य भी आरंभ कर दिया था, किन्तु नदी के तेज वेग के कारण यह बांध स्थायी नहीं रह सका।
महाराणा राजसिंह अपने युवराज पद में जैसलमेर के रावल मनोहरदास की पुत्री कृष्णकुंवरी से विवाह करने जैसलमेर गए थे। विवाह कर वापिस लौटते समय उन्होंने राजनगर पर पड़ाव किया था। वर्षा ऋतु होने के कारण गोमती नदीं में पानी का बहाव काफी तेज था। उस समय राजसिंह ने भी गोमती नदी के पानी को रोक कर एक विशाल तालाब बनाने के लिये सोचा था। इस तालाब की परिधि में सोलह गांवों की सीमा आ जाती है।
राजसमुन्द्र झील के निर्माण के सम्बंध में एक बात और प्रचलित है कि राजसिंह ने एक पुरोहित, एक रानी, एक कुंवर और एक चारण को मार दिया था। अत: ब्राह्मणों की सम्मति पर इन नृशंस हत्याओं के प्रायश्चित के रूप में महाराणा राजसिंह ने इस विशाल तालाब को बनाने का निर्णय लिया था। इस सम्बंध में कवि श्यामल दास ने अपने ग्रंथ वीर-विनोद में पूर्ण विवरण किया है।
अकाल राहत कार्य का ऐतिहासिक उदाहरण
इसके अतिरिक्त राजसमुन्द्र निर्माण का एक कारण यह भी बताया गया कि ई. सन् 1661-62 में उदयपुर राज्य में भयंकर अकाल पड़ा। मेवाड़ की जनता भूख के मारे पूर्णतया त्रस्त थी। महाराणा राजसिंह ने राजसमुन्द्र झील निर्माण का संकल्प तो पहले ही कर रखा था, अब दुर्भिक्ष से पीडि़त लोगों की सहायता करने के लिये उक्त संकल्प को उन्होंने तुरन्त मूर्तरूप में परिणत कर दिया। शोधकर्ताओं के अनुसार इस कारण को राजसमुन्द्र के निर्माण का मुख्य कारण माना जाता है। महाराणा राजसिंह ने अकाल पीडि़तों को सहायता देने और तालाब के जल से पैदावार में वृद्धि करने के लिए यह कार्य प्रारम्भ करवाया था। इसी कारण इस कार्य को इतिहास में ‘अकाल राहत कार्य’ को बेहतरीन उदाहरण भी कहा जाता है।
श्लोक :
तड़ागंत्रागता नद्यो गोमती ताल नाम मयुक्।
कैलवास्थ नदी सिंधौ गंगाया विवशुर्यथा।।
अर्थात् इस सरोवर में तीन नदियां गिरी हैं, गोमती, ताल व केलवा स्थित नदी।
रणछोर भट्ट ने कहा कि जिस प्रकार गंगा आदि नदियां समुद्र में गिरी हैं, उसी प्रकार राजसमुन्द्र में भी इन नदियों का संगम होता है।
इसके अतिरिक्त राजप्रशस्ति महाकाव्य में राजसमुन्द्र में सिवाली, भिंगावदा, भाण, लुहाणा, वांसोल और गुनली नामक गांव, पसूंद, खेड़ी, छापर खेड़ी, तासोल और मंडावर गावों की सीमाएं तथा कांकारोली, लुहाणा और सिवाली के जलाशय, निपान, वापी एवं कूप जिनकी संख्या 30 है, के डूबने का विवरण प्राप्त है।
राजसमुन्द्र निर्माण में अत्यंत सूझबूझ से काम लिया गया। इस कार्य को अनेक भागों में विभाजित कर दिया गया। नदी के किनारों पर स्थित दोनों पहाड़ों के मध्य बांध बनाने का कार्य आरम्भ हुआ। परिणामस्वरूप लगभग तीन मील लम्बा एवं डेढ़ मील चौड़ा सागर बना। धनुषाकृति में निर्मित इस बांध में लगभग 195 वर्ग मील भूमि का जल एकत्रित होता है। इस विशाल बांध की दृढ़ता को स्थाई रखने की समस्या का सामना करना पड़ा। अत: अरहतों द्वारा जल निकालने का कार्य किया गया एवं शुष्क भूमि में दृढ़ नींव स्थापित की गई। सौन्दर्य का भी ध्यान रखा गया। पूरे बांध पर राजनगर की खानों में उपलब्ध संगमरमर के पत्थर का उपयोग किया गया। मध्य में तोरण द्वार का निर्माण किया गया जो कला की दृष्टि से सत्रहवीं शती का एक श्रेष्ठ तोरण है।
राजसमुन्द्र में कई सेतु हैं जिनका नाम यह है
1 मुख्य सेतु
2 निम्ब सेतु
3 भद्र सेतु
4 कांकरोली सेतु
5 आसोटिया ग्राम के पाश्र्व में बना सेतु
6 वांसोल ग्राम के पाश्र्व में बना सेतु
राजसमुन्द्र के सेतु पर बारह कोष्ठ हैं। यहां कुल 48 मण्डपों का निर्माण हुआ था जिनमें कुछ वस्त्र के, कुछ काष्ठ के और कुछ पत्थरों के थे। उनमें से अब पत्थरों के बने केवल तीन मण्डप शेष बचे हैं।
तोरण के पास के हिस्से को नौचौकी (कांकरोली सेतु) कहा जाता है। यहां बने हुए मण्डप भी वास्तुकला एवं मूर्ति कला कीं दृष्टि के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। इस सेतु की लम्बाई नींव में 550 और सिरे पर 756 गज है। इसका विस्तार नींव में 35 तथा सिरे पर 7 गज है। इसकी ऊंचाई नींव में 17 और ऊपर 38 गज है। यहां तीन कोष्ठ बने हैं। सभा मण्डप की ओर बना कोष्ठ विस्तार से 28 और निर्गम से 14 गज है। इसकी ऊंचाई 35 ।। गज है। मध्य का कोष्ठ विस्तार से 36, निर्गम से 15 और ऊंचाई से 38 गज है। पूर्व दिशा में बना कोष्ठ विस्तार से 28, निर्गम से 12 तथा ऊंचाई में 37 गज है। मिट्टी का भराव 145 गज है। सेतु के पिछले भाग की ऊंचाई 1000 गज है। इसका विस्तार नींव में 15 और सिरे पर 10 गज है एवं उसकी ऊंचाई 38 थी किन्तु अब 22 गज ही है। मिट्टी के भराव से वहां शिव का एक प्राचीन मन्दिर आ गया था जिसे सुरक्षित कर लिया गया ओर दार्शनिकों के लिए वहां एक सुरक्षित मार्ग बनाया गया।
इस सेतु के अग्र माग पर 16 स्तम्भों वाले तीन मण्डप हैं। सेतु के आगे पर्वत पर जो शिला कार्य हुआ है उसकी लम्बाई 300 गज है, चौड़ाई और ऊंचाई में वह 5 गज है। गौगाट के पाश्र्व में उसकी लम्बाई 54 और विस्तार 10 गज है। नींव में उसकी ऊंचाई 5 गज है। वहां एक मण्डप बना है।
ऐतिहासिक स्रोतों से यह पता चला है कि राजसमुन्द्र जहां स्थित है वहां महाराणा अमरसिंह ने पहले गोमती नदी को बांध कर तालाब बनवाने का विचार किया था किन्तु महाराणा अमरसिंह के काल में वहां बांध नहीं बनवाया जा सका और विसं. 1718 (ई. सं. 1662) में महाराणा राजसिंह ने राजसमुन्द्र नामक तालाब को बनवाने का कार्य प्रारम्भ किया। वि. सं. 1732 (ई.सं. 1667) में इस तालाब का बांध बन कर तैयार हुआ और 14 जनवरी, 1667 ई. से 20 जनवरी 1667 ई. तक सात दिन के वृहत् समारोह के साथ माघ शुक्ला पूर्णिमा वृहस्पतिवार, विसं. 1732 (20 जनवरी, 1677 ई.) के दिन राजसमुन्द्र तालाब के बांध की प्रतिष्ठा सम्यन्न हुई।
इतनी विशाल जलराशि को इतने विस्तृत क्षेत्र में रोकने वाला राजसमुन्द्र का बांध भारत में ही नहीं पूरे विश्व में अपनी सानी का एक है। राजसमुन्द्र के तालाब के बांध को नौचौकी कहा जाता है। इस बांध को नौचौकी इसलिए कहा जाता है कि उस पूरे बांध की लम्बाई में ऊपर से नीचे सीढिय़ों के बीच की जगहों में एक के बाद दूसरे अधिक विस्तृत होते गए तीन बड़े मिट्टी युक्त परिधि (चौकियों या चबूतरे) तीन स्थानों पर बने हुए हैं, जिनका योग नौ आता है। इन नौ परिधियों अथवा चौकियों के होने के कारण ही इस बांध को नौचौकी कहा जाता है। इस बांध का यह नौचौकी नाम लोक परम्परा का है, शास्त्रीय नहीं है। शास्त्रीय परम्परा में राजसमुन्द्र का बांध एक तरफ सीधा बंधा होने एवं एक भद्र का ही होने से ‘भद्र’ संज्ञक तालाब है। इस बांध की पाल या बंध की लम्बाई 1015 फुट, शास्त्रों में उल्लिखित सबसे उत्तम प्रकार के तालाब के बंध की लम्बाई के अनुरूप है।
नौचौकी नामक इस बांध के कुण्ड या सीधी सपाट सीढिय़ों के अन्तिम स्तर पर नीचे पश्चिम से पूर्व की तरफ क्षैतिज लम्बाई में प्रत्येक परिधि या चौकी, जो ऊपर से नीचे उतरती हुईं तीन-तीन चौकियों के क्रम में सबसे बड़े आकार की हैं, उन पर माड़ (मण्डप) बने हुए हैं, जिन्हें अधिकांश कला समीक्षकों व इतिहासज्ञों ने छतरियां अथवा बारादरियां कहा है। किन्तु ये संज्ञाएं भ्रान्ति मूलक है। इन्हें तालाबों की स्थापत्य संज्ञाओं के अन्तर्गत माड़ और सम्पूर्ण ही कहा जाना उचित है। डॉ. जी. एन. शर्मा ने इन मण्डयों के आकार-प्रकार को समाधि छतरी अथवा देव-प्रसाद में निर्मित किए जाने वाले वाहन-मण्डप के अनुरूप गरुड़ या नंदी की छतरी जैसा बताया है, यह विचार संशोधनीय है। मूलत: ये न छतरियां हैं न किसी प्रासाद के आगे वाहन की मूर्ति-प्रतिष्ठा हेतु निर्मित मण्डपों की अनुकृति हैं और न ही ये बारादरियां हैं। ये तो स्थापत्य शास्त्रों में उल्लिखित जलाशय के किनारे अथवा उसके स्थापत्य के प्रकार के अनुरूप निर्मित किये जाने वाले मण्डप ही हैं। नौचौकी बांध पर बने इन मण्डपों के सम्बन्ध में एक भ्रान्त धारणा और प्रचलित है। कतिपय इतिहासकारों ने इन मण्डपों का सहसम्बन्ध अजमेर के निकट मुगल शासक शाहजहां द्वारा निर्मित अनासागर तालाब पर बनी बारादरियों से संस्थापित करने की चेष्टा की है। यह चेष्टा भावनापरक एवं वैचारिक है, स्थापत्य निर्माण की प्राचीन भारतीय एवं मध्यकालीन शैलियों एवं तकनीकों के विश्लेषण के आधार पर स्पष्ट होने वाले तथ्यों से इनका कोई संबंध नहीं है। वस्तुत: भारतवर्ष में प्राचीन काल से सागर तट पर, तालाबों के किनारों पर एवं कुण्डवापिकाओं इत्यादि में निर्मित किये जाने वाले निवेशों में इस प्रकार से सपाट छत वाले छाद्य-मण्डप बनाये जाते रहे हैं। ऐसे मण्डप का एक नमूना कन्याकुमारी (दूर-दक्षिण) के समुद्र तट पर अभी भी विद्यमान है। कन्याकुमारी समुद्र तट पर बिल्कुल सागर के किनारे जहां हिन्द सागर का पानी आकर भारत-भूमि के चरणों को पखारता है। वहां घाटनुमा कुछ सीढिय़ां बनी है और उन सीढिय़ों पर स्तम्भयुक्त सपाट छत वाला छाद्य–मण्डप बना है, जो भारत में मुसलमानों के आगमन से काफी समय पहले का निर्मित है और सागर तट अथवा जलाशय के किनारों पर घाट के साथ सपाट छतों से युक्त छाद्य-मंडप बनाये जाने की प्राचीन भारतीय परम्परा का उदाहरण है। इसी प्रकार मुगलों के भारत में प्रतिष्ठित होने से पहले बने कुण्डों एवं बावडिय़ों में भी इस प्रकार के मण्डप देखे जा सकते हैं, जिनमें मेवाड़ के गुहिल शासक भर्तभट्ट द्वितीय के काल में निर्मित आहड़ में संप्रति विद्यमान गंगोद्भव कुण्ड के चारों तरफ बने स्तम्भ युक्त छाद्य-मण्डप, मध्य में पहले विद्यमान चार स्तम्भों वाला एक मण्डप, गोगुन्दे की बावड़ी में बना छाद्य-मण्डप, काछोला एवं पारोली मार्ग पर चंचलेश्वर के पास भिनायकी बावड़ी में बने मण्डप इत्यादि उल्लेखनीय हैं। यही नहीं महाराणा के काल में उनकी रानी रामरसदे द्वारा देबारी गांव के निकट बनवाई गई त्रिमुखी बावड़ी के तीनों तरफ ऐसे छाद्य-मण्डप दृष्टव्य हैं। इसी प्रकार देबारी द्वार के निकट झाली रानी द्वारा बनवाई गई एक मुखी बावड़ी में भी ऐसे ही स्तम्भ युक्त दो छाद्य-मण्डप विद्यमान हैं। पिछोला झील के गणगौर घाट नामक स्नान-घाट पर भी ऐसा ही छाद्य-मण्डप दृष्टव्य है। सागर तट पर एवं जलाशयों के किनारों तथा कुण्डों-बावडिय़ों में विद्यमान ये सभी मण्डप भारतीय परम्परा के ही परिचायक हैं।
नौचौकी नाम से विश्रुत राजसमुन्द्र की यह पाल, उसके घाटों, घाटों की सीढिय़ों और सीढिय़ों के बीच में बने परिधों तथा घाटों के आजू-बाजू बने परिधे के ताकयुक्त मिट्टों की निर्माण प्रक्रिया की दृष्टि से भी अनोखी हैं। इस पाल के घाट की सीढिय़ों जिन्हें भारतीय स्थापत्य परम्परा की संज्ञाओं में ‘कुण्ड’ कहा जाता है, नौ-नौ की संख्या समूह में है। ऊपर से नीचे तीन-तीन समूहों को मिलाकर इस पाल के कुण्ड भाग बने हैं। इस प्रकार इस पाल के कुण्ड भाग में ऊपर के परिध के पश्चात् पूर्व से पश्चिम की तरफ क्षैतिज स्थिति में बनी नौ सीढिय़ां फिर परिध और फिर इसी रीति से बनी नौ सीढिय़ां विद्यमान है। इस प्रकार पूर्व पश्चिम दिशा में घाटों पर सत्ताईस–सत्ताईस सीढिय़ां बनी हैं। इसके पश्चात् पूर्व से पश्चिम दिशा की तरफ बढऩे वाली सीढिय़ों के स्थान पर मकानों की दीवार में बनाये जाने वाले जीने की तरह ठोस निर्मिति की छोटी सीढिय़ां बनी हैं, जो दिशा की दृष्टि से उत्तर-दक्षिण में निर्मित है तथा उन पर होकर तालाब के पानी तक जाने के लिए पूर्वाभिमुख अथवा पश्चिमाभिमुख होकर उतरना होता है। ऐसी बनी इन सीढिय़ों की संख्या नौ-नौ ही हैं। इस प्रकार नौचौकी के बांध की यह कुण्ड योजना भी विलक्षणता लिए हुए हैं। यही नहीं, इस बांध की चौकियों कं उध्वधिर भित्तों पर पूर्व-पश्चिम तथा उत्तर तीनों तरफ ताकें बनी हैं। ऐसी 27 ताक इस पाल पर दृष्टव्य हैं। जिनमें से तीन ताकों के सिवाय अन्य में 3।। गुना 2।। फुट आकार के काले पत्थर की पच्चीस शिलाएं (जिनमें से एक अनुपलब्ध) लगी हैं, इन पर महाराणा राजसिंह के आश्रित कवि तैलंग ब्राह्मण पं. रणछोड़ भट्ट द्वारा विरचित ‘राज-प्रशस्ति महाकाव्य’ उत्कीर्ण है। शिलाओं पर खोदा गया यह महाकाव्य विश्व की पाषाण-शिलाओं पर उत्कीर्ण अद्यावधि उपलब्ध 25 सर्गों की सबसे बड़ी रचना है। राज-प्रशस्ति महाकाव्य में 1105 संस्कृत भाषा के श्लोक निबद्ध हैं तथा दो सोरठे डिंगल भाषा में विरचित हैं। यह रचना मेवाड़ के राजनैतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास पर प्रकाश डालने वाला महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोत हैं।
नौचौकी नामक राजसमुन्द्र का यह बांध उक्त विशेषताओं के अतिरिक्त इस सम्पूर्ण–स्मारक के नियोजन तथा विन्यास और इसके तीन मण्डपों के स्तम्भों के विन्यास व उन पर किये तक्षण मण्डपों की छतों पर किये गये तक्षण एवं मूर्ति चित्रण तथा उन सबके स्थापत्य-कलागत संयोजन और पाल के विमिन्न भागों में बनी ताकों में प्रतिष्ठित पाषाण मूर्तियों के तक्षण की दृष्टि से विश्व की एक अनुपम रचना है। इसे यदि ‘मिरिकल इन मार्बल’ कह दिया जाय तो कोई अतिश्योक्ति नहीं है। इस स्थापत्य-स्मारक के निर्माण में कलाकृति की रचना के मूलभूत आधार-चारों प्रयोजक प्रेरणाएं-उद्देश्य, स्वरूप, वस्तु एवं तकनीक एक हो गये हैं। इस स्मारक के सम्पूर्ण संरचनात्मक गठन में उसके आकार, स्वरूप व स्थान के सन्दर्भ में पृष्ठभूमि सहसम्बन्ध तथा स्मारक के स्वरूप एवं देखने वाले की दृष्टि के विस्तार के सह-सम्बन्धों का इसी खूबी से निर्वाह किया गया है कि 1015 गुना 210 फुट के विस्तृत क्षेत्र में निर्मित होते हुए भी इसमें अद्भुत एकात्मकता दृष्टिगत होती है । यह स्मारक अपने बाह्य-स्वरूप में एक सीधी-सीधी एक सरीखी सरल रचना नजर आती है, किन्तु इसका निवेश एवं तक्षण विविधता युक्त है। राजसमुन्द्र की पाल की स्थापत्य निर्मितियों व तक्षण में विद्यमान यह विविधता में एकत्व वाला तत्व ही इस सम्पूर्ण रचना को ‘मिरिकल इन मार्बल’ कहने के लिए पर्याप्त हैं। यही नहीं. ऐसे कई तत्व इस स्मारक में विद्यमान हैं। राजसमुन्द्र की पाल पर निर्मित मण्डपों की छतों के संयोजन की विधि विलक्षणता युक्त है। यहां के दो मण्डपों की छतें अन्दर की तरफ से 12-12 भागों में विभक्त तथा पश्चिमी भाग के मण्डप की छत अन्दर से नौ भागों में विभक्त है। छतों के ये सभी भाग छोटी-छोटी विविध शिलापट्टियों से ढंक गये हैं. जिन पर अन्दर की तरफ मूर्ति-चित्रण और अलंकरण किया गया है। मूर्ति-चित्रण और अलंकरण में सटीकता लाने के लिए तथा विविधता लाने के लिए छत के एक-एक भाग में भी अलग-अलग आकार की, कोई सीधी-सपाट आयताकार कोई तिकोनी कोई चतुर्थ तथा कोई गोल शिलापट्टी रखी गयी है तथा उम्हें प्रास-प्रणाली को अपनाकर एक दूसरे से इस तरह परस्पर संयुक्त किया गया है कि छत के विभिन्न भागों के मध्य की पट्टियां अधर लटकी सी नजर आती हैं। इसका अधर में लटके हुए दिखाई देना जितना चमत्कारिक नहीं है उतना एक ही छत की दो या तीन भिन्न-भिन्न शिलापट्टियों पर एक मूर्ति अथवा एक ही उपादान के विविध अंग भागों का तक्षण किया जाना और उनको छत पर अधर में इस तरीके से संयुक्त करना कि वे अपने स्वरूप की सम्पूर्णता को व्यक्त करने में एक ही पाषाण-पट्टिका पर उत्कीर्ण हो, ऐसा प्रभाव उत्पन्न करने वाली नौ-चौकी के मण्डपों की छतें अत्यधिक आश्चर्यजनक हैं। ऐसे मूर्त आभास को उत्पन्न कर पाना बस सत्रहवीं शताब्दी के मेवाड़ के शिल्पियों, स्थापतियों एवं कलाकारों के बूते की ही बात थी। भारत की कला-साधना में अभियांत्रिकी एवं भास्कर्य का ऐसा अद्भुत सामंजस्य अपने उच्चतम स्तर पर सम्पूर्ण उत्तर भारत में महाराणा राजसिंह द्वारा बनवाये गये मात्र इन नौचौकी नामक तालाब के बंध के मण्डपों में ही दृष्टव्य हैं। इसीलिए इस स्थापत्य स्मारक को ‘मिरिकल इन मार्बल’ कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है।
राजनगर की स्थानीय पहाडिय़ों में ही उपलब्ध सफेद संगमरमर पत्थर से निर्मित इस स्मारक में कई स्थानों पर ऐसे शिलापट्ट भी लगे हैं जो मूलत: अपने सपाट (होरिजेन्टल) आकार में एक पट्टी है, किन्तु उसे सपाट आकार में ही एक सिरे से दूसरे सिरे तक परस्पर बीच में संयोजक घुंडियों से जुड़ी हुई दो पट्टियों में विभक्त कर दिया गया है। फिर पट़टी के एक भाग में मूर्तियों, बेल-बूटे. फूल-पत्तियों एवं पौराणिक अभिप्रायों के कथानक उत्कीर्ण किए गए हैं।
(आलेख: डाॅ. विष्णु माली, मनीषा सांचीहर)