वेलकम 2 उदयपुर.
उदयपुर से पूर्व दिशा में लगभग 55 किलोमीटर की दूर, कुराबड़ रोड पर स्थित जगत गांव का अम्बिका मंदिर अपनी सुंदरता के लिये जगत प्रसिद्ध है। 9वीं से 10वीें सदी के बीच बना यह मंदिर शिल्प कला के नजरिये से खजुराहो के मंदिरों से समानता रखता है। यही वजह है कि इसे ‘राजस्थान का खजुराहो’ भी कहा जाता है। इस मंदिर का निर्माण कब हुआ, इसे लेकर स्पष्टता नहीं है, लेकिन कुछ अभिलेखों की सहायता से यह कहा जाता है कि इसका जीर्णोद्धार विक्रम संवत् 1017 में किया गया। इसकी शिल्प कला के आधार पर इसे 9वीं शताब्दी में बनाया गया मंदिर माना जाता है। इसमें गर्भगृह, सभा मंडप, जगमोहन (पोर्च) और पंचरथ शिखर हैं। इसके सौन्दर्य की तुलना आहाड़ के मंदिरों से भी की जा सकती है। गर्भगृह में अम्बिका की नई प्रतिमा प्रतिष्ठित की गई है। यह स्थल पुरातत्व विभाग के अधीन संरक्षित है, लेकिन यहां से मूल प्रतिमा काफी पहले चोरी हो गई। सभा मण्डप स्थित नृत्य गणपति की प्रतिमा को भी उखाडक़र ले जाने के प्रयास दो-तीन बार हो चुके हैं।
इस प्राचीन मंदिर के स्तम्भ पर विक्रम संवत् 1017 यानि ईस्वी 960 में तत्कालीन महारावल अल्लट के शासनकाल में पुरखों की विरासत को बचाए रखने के संदेश व इससे प्राप्त होने वाले पुण्यकर्म के सम्बंध में श्लोक लिखा गया है।
वापी-कूप-तडागेषु-उद्यान-भवनेशु च।
पुनर्संस्कारकर्तारो लभते मूलकं फलम॥
इस श्लोक में विरासत के महत्व के स्थलों के रूप में सीढ़ी वाले कुण्ड (बावड़ी), कुआं, तालाब-तड़ाग जैसे जलस्रोत, पर्यावरण को शुद्ध रखने वाले उद्यान तथा सार्वजनिक हित के विश्रान्ति भवन, शैक्षिक स्थल, आश्रम, देवालय आदि के संरक्षण के भाव से उनका पुनर्संस्कार करने की प्रेरणा देते हुए कहा गया है कि जो कोई इनका पुनरुद्धार करवाता है तो वह उसी फल से लाभान्वित होता है जो कि मूल कार्य करवाने वाले को मिलता है।
शिल्प
मंदिर में प्रवेश के लिए पूर्व में एक मण्डप बना है, लेकिन इसमें अन्य दिशाओं में बने मंडप से भी प्रवेश किया जा सकता है। मुख्य मंदिर के समाने अत्यंत सुन्दर तोरण बनाया गया है। मुख्य प्रवेश द्वार के मंडप की दीवारों पर मातृका की मूर्तियां उकेरी गई हैं। प्राचीन शिल्प के जानकारों के अनुसार वहां वाराही की मूर्ति तांत्रिक विधा से बनाई गई है और वह हाथ में मीन (मछली) लिए हुए है। छह स्तम्भों पर खड़े सभा मंडप की छत सपाट और चौकोर है। इन खम्भों पर विक्रम संवत 1017 (960 ईस्वी), 1228 (1171 ईस्वी), 1277 (1220 ईस्वी), 1306 (1249 ईस्वी), 1724 (1667 ईस्वी), 1744 (1687 ईस्वी) और 1745 (1688 ई) केस्वी अभिलेख खुदे हुए हैं। विक्रम संवत 1277 एवं 1306 के अभिलेख डूंगरपुर क्षेत्र के शासकों के हैं। महाराणा मोकल के समय यह क्षेत्र डूंगरपुर के रावल गैपा के आधिपत्य में था, जिसे महाराणा कुम्भा ने विक्रम संवत 1498 में पुन: अपने आधिपत्य में लिया। स्तम्भ के ऊपरी भाग पर कमल के फूल की रचना की गई है। गर्भगृह को पत्तों और फूलों की नक्काशी से सजाया गया है। प्रवेश द्वार और गर्भगृह को विद्याधर, शिव, गणेश और मातृका की मूर्तियों से अलंकृत किया गया है। मंदिर के मण्डोवर, जंघा और अन्य भागों का अलंकरण अतिसुंदर किया गया है। सुरसुन्दरियां नृत्य करतीं, मंदिर जाती, केश विन्यास करती, दर्पण देखती आदि भंगिमाओं में अंकित हैं। कुबेर, वायु, योगी जैसे दिग्पालों की प्रतिमाओं का भी अंकन किया गया है। सभा मण्डप के बाहरी भाग पर शुम्भहंत्री दुर्गा और देवी सरस्वती की चतुर्भुज स्थानक अवस्था में अपने आयुधों के साथ प्रतिमा अंकित है। वहीं दायें भाग पर दुर्गा और बायें भाग पर महिषमर्दिनी की अष्टभुजा प्रतिमाओं का अंकन किया गया है।
सभा मण्डप के नृत्यरत गणेश
अम्बिका मंदिर के सभा मण्डप की खासियत नृत्यरत गणेश की प्रतिमा है। त्रिभंगी अवस्था में गणेश का यह अंकन अति सुंदर है। इस प्रतिमा की खासियत उसकी भंगिमा की है। कहीं-कहीं यह स्वरूप शिव ताण्डव की प्रतिमाओं से मेल खाता है। गणेश ने गले में कण्ठमाल और वैजयंती धारण कर रखी है। साथ ही माणिक की यज्ञोपवीत धारण किए हुए हैं। अधो भाग में धोती पहने हैं।
प्रवेश मण्डप
इस मंदिर का प्रवेश मण्डप मूर्ति शिल्प की सभी विशेषताओं को अपने में समेटे है। यहां के ललाट बिम्ब पर नवग्रह का अंकन अति सुंदर है। सप्त मातृका इस मण्डप की शोभा बढ़ा रही है। प्रवेश मण्डप और पूरे मंदिर में स्तम्भों की चौकियों पर महिला कीचक लगे हैं, यह सामान्य रूप से देखने को नहीं मिलते हैं। इस मण्डप का प्रमुख आकर्षण युगल और मिथुनस्थ मूर्तियां और सामाजिक जीवन के दृश्य हैं। युगल और मिथुनस्थ मूर्तियों के कारण ही इस मंदिर परिसर की तुलना खजुराहो से की जाती है।
कैसे पहुंच सकते हैं…
How To Reach | Local Transport |
Location | Location Click here |